देव दीपावली - त्रिपुरासुर वध की कथा

भगवान् शंकर द्वारा त्रिपुरासुर वध से मृत्युलोक की रक्षा के उपलक्ष्य में कार्तिक पूर्णिमा पर सभी देवता काशी में अवतरित होकर गंगा स्नान करते हैं और आनंदपूर्वक देव दीपावली का उत्सव मनाते हैं। आइए, जानते हैं कि यह दिव्य पर्व — देव दीपावली — क्यों मनाया जाता है।

श्री कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर का वध होने के पश्चात उसके तीनों पुत्र–तारकाक्ष, विद्युन्माली तथा कमलाक्ष पिता के निधन से अत्यंत क्रोधित और दुःखी हुए। उन्होंने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर मेरु पर्वत की गुफा में जाकर ब्रह्माजी की कठोर तपस्या आरंभ की। इस प्रकार तप करते हुए बहुत समय बीत गया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी वहाँ प्रकट हो गये और उन असुरों से अभीष्ट वर माँगने को कहा।

दैत्य - “हे ब्रह्मदेव! यदि आप प्रसन्न हैं तो हमें अमरता प्रदान कीजिये।” 

ब्रह्माजी - “हे असुरो! पूर्ण अमरत्व किसी को नहीं मिल सकता। इस भूतल पर जहाँ भी कोई प्राणी जन्मा है, वह अवश्य मरेगा। अतः कोई अन्य वर माँग लो।”

दैत्य - “हे लोकपितामह! हमें तीन ऐसे अभेद्य नगर दीजिये, जिनमें कोई शत्रु प्रवेश न कर सके—

एक स्वर्णपुर (सोने का शहर),

दूसरा रजतपुर (चाँदी का शहर),

और तीसरा लौहपुर (लोहे का शहर)।

ये तीनों पुर सभी ऐश्वर्यों से सम्पन्न और देवताओं के लिए दुर्गम हों।”

ब्रह्माजी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और दैत्य शिल्पी मय को आज्ञा दी।

ब्रह्माजी - “हे मय! इन तीनों नगरों का निर्माण करो।”

मय को यह आज्ञा प्रदान कर ब्रह्माजी अपने लोक को चले गये। तदनन्तर मय ने बड़े प्रयत्न के साथ तीनों पुरों का निर्माण किया। ये तीनों पुर क्रम से स्वर्ग में, आकाश में एवं भूलोक में अवस्थित हुए।

इन नगरों को प्राप्त कर तीनों तारकपुत्र वहाँ बस गए और दीर्घकाल तक वैभव व आनंद में लीन होकर देवताओं को कष्ट देने लगे। उनके अत्याचार से व्यथित होकर इन्द्रादि देवगण ब्रह्माजी के पास पहुँचे और सहायता माँगी।

ब्रह्माजी - “हे देवताओ! आप लोग उन दैत्यों से बिलकुल मत डरिये। इन्द्र सहित सभी देवता शिवजी से प्रार्थना करें। यदि वे सर्वाधीश प्रसन्न हों तो आप लोगों का कार्य पूर्ण हो सकेगा।” 

तब ब्रह्माजी की बात सुनकर इन्द्रसहित सभी देवता दुखी होकर शिवलोक गये और भगवान् शिव से प्रार्थना की।

भगवान् शंकर - “वे दैत्य अत्यंत पराक्रमी और गुणसंपन्न हैं। ब्रह्मदेव के वरदान से वे अभय हो चुके हैं, अतः उनका कोई अनिष्ट करना मेरे लिए संभव नहीं। इसलिये आप देवतागण श्रीहरि विष्णु से प्रार्थना करें।”

तब वे सभी देवगण भगवान् विष्णु के समक्ष प्रस्तुत हुए और पूर्ण दीनता के साथ श्रीहरि विष्णु के समक्ष अपनी परिस्थितियों को बताया तथा भगवान् शिव के विचारों को भी व्यक्त किया।

भगवान् विष्णु - “ब्रह्मदेव के वरदान के कारण उनका नाश करना संभव नहीं है। फिर भी मैं अपनी माया से उन दैत्यों का संहार करूँगा।”

भगवान् विष्णु ने एक भव्य यज्ञ संपन्न किया। उस यज्ञकुंड की दिव्य ज्वालाओं से सहस्रों दिव्य आत्माएँ उत्पन्न हुईं। श्रीहरि ने उन्हें आदेश दिया कि वे जाकर त्रिपुरासुरों का संहार करें। परंतु वे आत्माएँ उन बलशाली दैत्यों के प्रचंड तेज और बल को सह न सकीं। यह देखकर भगवान् विष्णु गहन चिंतन में पड़ गए — “अब इन त्रिपुरासुरों का नाश किस प्रकार किया जाए?”

यह देख भगवान् शंकर ने कहा- “सब मिलकर पुरुषार्थ क्यों नहीं करते? पुरुषार्थ ही सम्भवता का मार्ग है।”

यह कहकर भगवान् शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर को मारने का संकल्प लिया।

तब समस्त देवगण महादेव के वचन सुनकर हर्षित हो उठे और बोले—“हे महेश्वर! हम सब अपनी अर्धशक्ति आपको अर्पित करते हैं और आपके रथ, अस्त्र-शस्त्र तथा उपकरण बनकर संग्राम के लिए तत्पर हैं।” तब विश्वकर्मा ने संसार के कल्याण के लिये सर्वदेवमय दिव्य तथा अत्यन्त सुन्दर रथ का निर्माण किया। उन्होंने रथ का आधार पृथ्वी को बनाया, सूर्य और चंद्रमा उसके चक्र बने, ब्रह्माजी सारथी बने, श्रीहरि विष्णु बाण बने, मेरु पर्वत धनुष और नागराज वासुकि उस धनुष की डोरी बने। इस प्रकार समस्त देवताओं की शक्तियाँ एकजुट होकर महादेव के त्रिपुरांतक स्वरूप में समाहित हो गईं।

महादेव शम्भु समस्त युद्ध-सामग्रियों से युक्त हो उस रथ पर बैठकर त्रिपुर के दैत्यों को दग्ध करने के लिये उद्यत हुए। अपनी सफलता के लिए सदाशिव ने भद्रकाली को बुलाकर गणेशजी का पूजन किया।

जब महादेव जी श्री गणेश का पूजन कर स्थित हो गये, उसी समय वे तीनों पुर शीघ्र ही एक में मिल गये। जगत्पिता ब्रह्मा तथा श्रीहरि विष्णु ने कहा—“हे महेश्वर! अब इन दैत्य तारकपुत्रों के वध का समय उपस्थित हो गया है; क्योंकि इनके तीनों पुर एक स्थान में आ गये हैं। जब तक ये तीनों पुर एक-दूसरे से अलग नहीं होते, तब तक आप बाण छोडिये और त्रिपुर को भस्म कर दीजिये।”

शिवजी के द्वारा छोड़े गये तीव्रगामी उस विष्णुमय बाण ने त्रिपुर में रहने वाले उन तीनों दैत्यों को दग्ध कर दिया। इसके साथ ही सैकड़ों दैत्य हाहाकार करते हुए उस बाण की अग्नि से भस्म हो गये। जिस प्रकार कल्पान्त में जगत् भस्म हो जाता है, उसी प्रकार उस अग्नि ने केवल दैत्य शिल्पी मय को छोड़कर सभी को भस्म कर दिया। महेश्वर के शरणागत होने पर नाशकारक पतन नहीं होता है। इसलिये सब पुरुषों को ध्यानपूर्वक यह यत्न करना चाहिये, जिससे भगवान् शंकर में भक्ति बढ़े। इसके अनन्तर ब्रह्माजी एवं श्रीहरि विष्णु समेत अन्य सभी  देवताओं ने भगवान् शंकर की स्तुति की। शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें मनोऽभिलषित वर प्रदान किया।

देव दीपावली - त्रिपुरासुर वध की कथा

कहानी का स्रोत - शिवपुराण

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