गणेश चतुर्थी – एक कथा, एक उत्सव

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को जब सूरज उगता है, तो भारत का वातावरण भक्ति और उल्लास से भर जाता है। ढोल-नगाड़ों की गूंज, “गणपति बप्पा मोरया” के जयकारे और मोदक की सुगंध पूरे माहौल को पावन बना देती है। यही है गणेश चतुर्थी – भगवान गणेश के जन्मोत्सव का पर्व।

 

जन्म कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, माता पार्वती ने अपने शरीर के उबटन से एक बालक की प्रतिमा बनाई और उसमें प्राण फूँक दिए। यह बालक उनके द्वारपाल बने। एक दिन जब भगवान शिव लौटे और अंदर प्रवेश करना चाहा, तो गणेश जी ने माता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्हें रोक दिया। क्रोधित होकर शिवजी ने उनका मस्तक काट दिया।

माता पार्वती का शोक देखकर समस्त देवता चिंतित हो उठे। तब शिवजी ने गणेश के धड़ पर हाथी का सिर लगाकर उन्हें पुनर्जीवित किया और उन्हें “विघ्नहर्ता” तथा “मंगलकर्ता” का स्थान दिया। शिवजी ने यह भी वरदान दिया कि गणेश की पूजा हर यज्ञ और हर शुभ कार्य से पहले होगी।

गणेशजी ने निवेदन किया कि वे हर वर्ष पृथ्वी पर आकर अपने भक्तों के साथ रहना चाहते हैं। तब शिव-पार्वती ने आशीर्वाद दिया कि वे भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को पृथ्वी पर आएँगे, दस दिनों तक भक्तों के बीच रहेंगे और अनंत चतुर्दशी को कैलाश लौटेंगे।

 

दस दिन का उत्सव

इसी आशीर्वाद की याद में गणेश चतुर्थी का पर्व दस दिनों तक मनाया जाता है।
पहले दिन घरों और पंडालों में मिट्टी की प्रतिमा का स्वागत किया जाता है। मंत्रोच्चारण और प्राण प्रतिष्ठा के साथ भगवान को परिवार का सदस्य माना जाता है। अगले नौ दिनों तक सुबह-शाम आरती, भजन, गणेश स्तोत्र और प्रसाद अर्पित किया जाता है। मोदक, लड्डू, नारियल और दूर्वा की सुगंध वातावरण को और पावन बना देती है।

सिर्फ घरों में ही नहीं, बल्कि पंडालों में सांस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य, कीर्तन और सामाजिक आयोजन होते हैं। यह केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि समाज को जोड़ने का उत्सव है।

 

अनंत चतुर्दशी और विसर्जन

दसवें दिन, यानी अनंत चतुर्दशी पर, गणेश जी को विदाई दी जाती है। भक्त ढोल-ताशों के साथ शोभायात्रा निकालते हैं और जयकारों से वातावरण गूंज उठता है –
“गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ!”

विसर्जन का अर्थ केवल प्रतिमा को जल में प्रवाहित करना नहीं है। यह हमें सिखाता है कि जीवन अस्थायी है और अंततः हर जीव को ईश्वर में ही विलीन होना है।

 

महत्व और संदेश

गणेश जी को विघ्नहर्ता, सिद्धिविनायक और बुद्धि के देवता माना जाता है। हर शुभ कार्य उनकी वंदना से ही शुरू होता है।

यह पर्व हमें विश्वास, अनुशासन और त्याग का संदेश देता है।


आधुनिक महत्व

1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस पर्व को निजी उत्सव से सार्वजनिक आयोजन बनाया। उनके प्रयासों से यह पर्व समाज को एकजुट करने और स्वतंत्रता आंदोलन की ऊर्जा का प्रतीक बन गया।

 

आज गणेश चतुर्थी केवल पूजा का पर्व नहीं है, बल्कि यह भक्ति, संस्कृति, कला, समाज और प्रकृति संरक्षण का अद्भुत संगम है।

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