हीरे का मोल

प्राचीन काल की बात है एक कुम्हार अपने गधे पर सवार होकर जा रहा था। गधे के गले में एक सुंदर पत्थर बंधा हुआ था। मार्ग में उसे एक जौहरी मिला, जौहरी ने पहली दृष्टि में ही परख लिया कि ये पत्थर तो बहुमूल्य हीरा है। परन्तु उसके मन में लोभ आ गया और वह कुम्हार की अज्ञानता का लाभ उठाने की सोचने लगा। उसने कुम्हार से पूछा कि क्या वह पत्थर उसको बेचेगा। कुम्हार ने उत्तर दिया कि सही मूल्य मिलेगा तो अवश्य बेचेगा। जौहरी ने कहा कि ये मामूली-सा पत्थर किस काम का है, फिर भी वो दयावश उसको चार आने देगा। कुम्हार बोला आठ आने से एक भी पैसा कम न लूंगा। जौहरी लोभ के वशीभूत विचार करने लगा कि इसको तो हीरे के मूल्य का ज्ञान नहीं है सो निश्चित ही मैं इसको चार आने में ही ले लूंगा।

ऐसा सोचकर वह वहीं कुम्हार की वापसी की प्रतीक्षा करने लगा। जैसे जैसे समय बीतता गया उसकी बेचैनी बढ़ने लगी, अंततोगत्वा उसने सोचा आगे जाकर देखना चाहिए कुम्हार वापस क्यूं नहीं आता। आगे जाने पर उसने देखा कि कुम्हार एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहा था और गधा निकट ही घास खा रहा था। उसने कुम्हार को दया दिखाते हुए कहा कि लाओ मैं तुम्हारे पत्थर के आठ आने दे देता हूं। कुम्हार ने बताया कि उसने तो वह पत्थर एक भले मानस को पूरे सोलह आने (एक ₹) में बेच दिया। इस पर तो जौहरी का मानसिक संतुलन खो गया और वो क्रोध से बोला - मूर्ख वो पत्थर नहीं बहुमूल्य हीरा था, तू निरा गधा है। इस पर कुम्हार बोला प्रभु मैं तो अज्ञानी और गधा ही हूं जो हीरे को पत्थर समझकर गधे के गले में बांधे फिर रहा था।

परन्तु आप को क्या कहूं आप तो जानते थे कि हीरा है फिर भी पत्थर के मूल्य में भी लेने को राजी न हुए। सत्य ही है यदि किसी को माया जकड़ ले और वो संसार के पत्थरों के पीछे भागता रहे तो कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि सारा संसार ही भाग रहा है परन्तु एक बार सत्य और धर्म का ज्ञान हो जाए फिर भी यदि जीवन रूपांतरित न हो तो वह‌ निश्चय ही उस जौहरी की भांति अभागा है।

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